अलवर दुर्ग के भीतर निकुंभ शासकों द्वारा निर्मित महल परंपरागत हिंदू स्थापत्य के उत्कृष्ट उदाहरण

   पूर्वी राजस्थान के पर्वतीय दुर्गों में अलवर का बाला किला प्रमुख और उल्लेखनीय है। अरावली पर्वतमालाओं से आवृत एक उन्नत पर्वत शिखर पर बना यह दुर्ग एक सजग प्रहरी की तरह अलवर के मुकुट के समान शोभायमान हैं।अनियमित आकार की पर्वत श्रेणियों पर मीलों तक फैली इसकी सुदृढ़ प्राचीर ऐसी प्रतीत होती है मानो प्रकृतिदेवी अनेक लड़ियों वाला हार पहने हुए हो। नैसर्गिक सौंदर्य से ओतप्रोत यह किला बीते युग की रोमांचक दास्तान संजोए हुए है।
   अलवर का किला एक प्राचीन दुर्ग है। दुर्ग के निर्माताओं के बारे में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। जनश्रुति के अनुसार विक्रम संवत 1106 में आमेर नरेश कांकिलदेव के कनिष्ठ पुत्र अलघुराय ने इस पर्वत शिखर पर एक छोटा दुर्ग बनवाकर उसके नीचे एक नगर बसाया जिसका नाम अलपुर रखा गया। इस प्राचीन नगर के भग्नावशेष आज भी विद्यमान है जो रावणदेहरा के नाम से प्रसिद्ध हैं। एक अन्य मान्यता के अनुसार इसका प्राचीन नाम अर्वलपुर (अरावली पहाड़ियों के मध्य में स्थित नगर) था जो बाद में अपभ्रंश होकर अलवर हो गया। इतिहासकार जनरल कनिंघम के अनुसार साल्व जाति का यहां वास होने के कारण पहले इसका नाम साल्वपुर था जो कालांतर में बिगड़ कर अलवर हो गया।
   12 वीं शती के लगभग यह किला कछवाहों के हाथ से निकल कर निकुंभ क्षत्रियों (चौहानों) के अधिकार में आ गया।  निकुंभों ने इस प्राचीन किले का विस्तार करवाया तथा सुदृढ़ प्राचीरों का निर्माण करवाकर इसे एक दुर्भेद्य दुर्ग का रूप प्रदान किया। उन्होंने किले के भीतर महल तथा अपनी आराध्यदेवी (चतुर्भुजा) का मंदिर बनवाया। निकुंभ बहुत अच्छे निर्माता थे। उन्होंने कला व संस्कृति को सरंक्षण एवं प्रश्रय दिया। उन्होंने अलवर के निकटवर्ती प्रदेश में भी छोटे-बड़े दुर्ग तथा मंदिर आदि बनवाएं। जनश्रुति के अनुसार अलवर पर अधिकार करने से पहले आभानेरी पर निकुंभों का वर्चस्व रहा था जिसे उन्होंने सुंदर और कलात्मक नगर के रुप में समृद्ध किया।
   अनेक वर्षों तक शासन करने के उपरांत निकुंभों का पतन हो गया। उनके पतन के पीछे प्रमुख कारण यह बताया जाता है कि अपनी आराध्यदेवी के सम्मुख नरबलि देने की प्रथा के कारण प्रजा में वे अलोकप्रिय हो गए। अलावलखां खानजादे ने प्रजा के आक्रोश तथा भीतरघात की सहायता से दुर्ग पर अचानक आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया। तदुपरांत उसने दुर्ग के विशाल प्रवेश द्वार पर परकोटे का निर्माण करवाया। अलावलखां का पुत्र और उत्तराधिकारी हसनखां मेवाती बहुत वीर और पराक्रमी हुआ। अलवर राज्य के इतिहास के अनुसार बाबर और राणा सांगा की लड़ाई में वीर हसनखां ने राणा सांगा का पक्ष लिया था और अपनी 12 हजार की सेना के साथ खानवा नामक स्थान पर बाबर की सेना से घोर युद्ध किया और लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ।
   खानवा विजय के बाद बाबर ने अलवर दुर्ग पर अधिकार कर लिया। उसने यह दुर्ग तथा अलवर का निकटवर्ती प्रदेश (मेवात परगना) अपने पुत्र हिंदाल को जागीर में दे दिया। बाबर स्वयं भी इस किले में कुछ दिनों तक रहा। यहां रहते हुए उसने मेवात का खजाना हुमायूं को सौंपा था। शेरशाह ने हुमायूं को पराजित कर भगाने के बाद अलवर दुर्ग पर अधिकार कर लिया। उसके उत्तराधिकारी सलीमशाह के शासनकाल में यहां के दुर्गाध्यक्ष ने अपने सुल्तान के नाम पर इस किले में सलीमसागर नामक एक जलाशय भी बनवाया जो आज भी विद्यमान है। वहां पर एक शिलालेख भी लगा हुआ है।
   अकबर द्वारा लिए जाने के बाद अलवर का किला मुगलों के पास ही रहा। बादशाह औरंगजेब ने इसे आमेर के  मिर्जा राजा जयसिंह को इनायत कर दिया था, पर दुर्ग के सामरिक महत्व को समझते हुए इसे वापस ले लिया।  औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात मुगल साम्राज्य के पराभव काल में भरतपुर के यशस्वी शासक राजा सूरजमल ने अलवर दुर्ग पर अधिकार कर लिया। उसने दुर्ग में महल तथा एक कुंड बनवाया जो उसके नाम पर सूरजकुंड कहलाता है। तत्पश्चात 1775 ई. में अलवर के पृथक राज्य के संस्थापक माचेड़ी के राव प्रतापसिंह ने भरतपुर की सेना को खदेड़ कर इस दुर्ग पर अपना अधिकार कर लिया। तब से लेकर भारत की स्वाधीनता तक अलवर दुर्ग पर कछवाहों की नरूका शाखा का अधिकार रहा।
   विशाल पर्वत शिखर पर अवस्थित अलवर दुर्ग अपनी विशिष्ट संरचना एवं स्थापत्य के कारण शत्रुओं के लिए प्राय: दुर्भेद्य रहा है। भूतल से एक हजार फीट ऊंची पहाड़ी पर बने इस किले की प्राचीर लगभग 6 मील की परिधि में है जिसमें 15 बड़ी बुर्जें तथा 52 छोटी बुर्जें बनी हुई है। प्राचीर के कंगूरों में शत्रु पर गोले दागने के लिए छिद्र बने हुए हैं। दुर्ग की दूसरी रक्षापंक्ति के रूप में आठ बुर्जें हैं जिनमें काबुल, खुर्द और नौगजा बुर्ज प्रमुख हैं।
  दुर्ग में जाने का मार्ग घुमावदार तथा चढ़ाई वाला है। इसमें पांच प्रमुख पोल (प्रवेशद्वार) हैं। पश्चिम में चांदपोल है जिसे संभवत निकुंभ राजा चांद ने बनवाया था। पहले शायद किले में प्रवेश के लिए यही मुख्य प्रवेश द्वार था। अन्य प्रवेश द्वारों में पूर्व की ओर सूरजपोल, दक्षिण की ओर लक्ष्मणपोल और जयपोल हैं। उत्तर की ओर अंधेरी दरवाजा है जहां दो पहाड़ियां हैं जिससे सूर्य का प्रकाश नहीं पहुंचने से अंधेरा रहता है। सलीम सागर तालाब तथा सूरजकुंड जल के प्रमुख स्रोत हैं। 1832 ई. में अलवर राज्य के संस्थापक महाराजा प्रतापसिंह द्वारा निर्मित सीतारामजी का मंदिर भी यहां विद्यमान है। दुर्ग के भीतर निकुंभ शासकों द्वारा निर्मित महल परंपरागत हिंदू स्थापत्य के उत्कृष्ट उदाहरण है। इनके निर्माण में सामरिक सुरक्षा और रिहायशी सुविधाओं का समन्वय दिखलाई पड़ता है। अलवर का बाला किला अतीत की एक समृद्ध धरोहर है।

पन्नालाल मेघवाल वरिष्ठ लेखक
एवं अधिस्वीकृत स्वतंत्र पत्रकार।

By Udaipurviews

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