उदयपुर, 5 नवम्बर। जैनाचार्य रत्नसेनसूरीश्वरजी म.सा. आदि साधु-साध्वी का महावीर विद्यालय चित्रकूट नगर से गाजे-बाजे चर्तुविध संघ के साथ महेन्द्रभाई सेठ के गृहांगण में श्याम नगर-सी ब्लॉक खेलगांव के सामने चित्रकूटनगर उदयपुर में चातुर्मास का परिवर्तन हुआ। वहाँ शत्रुंजय महातीर्थ के पट्ट के सन्मुख सामुहिक चौत्यवंदन आदि विधि-विधान हुए।
धर्मसभा को प्रवचन देते हुए जैनाचार्य ने कहा कि इस जगत् में सद्द्रव्य, सत्कुल में जन्म, सिद्धक्षेत्र, समाधि और चतुर्विध संघ ये पाँच ‘स’ कार दुर्लभ हैं। पुंडरीक पर्वत, पात्र, प्रथम प्रभु, परमेष्ठी और पर्युषण पर्व-ये पाँच ‘प’ कार दुर्लभ हैं। उसी प्रकार शत्रुंजय, शिवपुर (मोक्ष), शत्रुंजय नदी, श्रीशांतिनाथ भगवान और शमवंत को दान ये पाँच श्शश्कार भी दुर्लभ हैं। जिस स्थान पर एक बार आकर महापुरुष अधिष्ठित होते हैं, वे तीर्थ कहलाते हैं। लेकिन इस स्थान पर तो अनंत तीर्थंकरदेव आए हैं अतः यह महातीर्थ गिना जाता है। यहाँ पर बहुत से तीर्थंकर परमात्मा सिद्धपद को प्राप्त हुए हैं। अनंत मुनि भगवंत भी सिद्धपद को पाए हैं, अतः यह शत्रुंजय तीर्थ महान् तीर्थ गिना जाता है। पुंडरीकगिरि की यात्रा की भावना से करोड़ों भवों के पाप प्रति कदम पर नष्ट हो जाते हैं। इस गिरिराज तरफ कदम भरने वाला प्राणी भी करोड़ों भवों के पापों से मुक्त हो जाता है। इस तीर्थ की भावपूर्वक स्पर्शना करने वाले आत्माओं को रोग, संताप, दुःख, वियोग, दुर्गति और शोक नहीं होते हैं। बुद्धिशाली तथा कल्याणकारी आत्मा को इस तीर्थ में पत्थर खोदना, लघुनिति या बड़ीनीति नहीं करनी चाहिए। यह गिरिराज स्वयं तीर्थ है। दर्शन और स्पर्शन से भौतिक सुख और मुक्ति सुख भी प्राप्त होते हैं। स्वर्ग, मनुष्यलोक और पाताललोक में जितने जिनबिंब हैं, उन सबके पूजन से, इस तीर्थ पर रहे श्री जिनबिंब के पूजन से विशेष फल मिलता है।
गाजते बाजते जैनाचार्य का हुआ चातुर्मास परिवर्तन
