उदयपुर, 6 अगस्त। केशवनगर स्थित नवकार भवन में आत्मोदय चातुर्मास के तहत मंगलवार को आयोजित धर्मसभा को सम्बोधित करते हुए हुक्मगच्छाधिपति आचार्य श्री विजयराज जी म.सा. ने फरमाया कि ज्ञान दो प्रकार का होता है-मूर्त एवं अमूर्त। मूर्त ज्ञान भी पुनः दो प्रकार का है-श्रुत ज्ञान एवं मति ज्ञान। श्रवण करने से प्राप्त होने वाला, पंचेन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त होने वाला ज्ञान श्रुत ज्ञान है, यह देशना से भी जाना-समझा जाता है। जाने गये ज्ञान पर मनन करने से मति ज्ञान की प्राप्ति होती है। मतिज्ञान का सहगामी श्रुतज्ञान है। ये दोनों परोक्ष ज्ञान हैं। आचार्य भद्रबाहुकृत विशेषावश्यक भाष्य में इन्हें विस्तार से समझाया गया है। जिज्ञासा होने पर प्रश्न पूछें, इससे समाधान जरूर मिलेगा। यदि जीवन में ज्ञान आ गया तो जीवन सुंदर, शालीन एवं विवेक से सुसज्जित हो जाएगा। उपाध्याय श्री जितेश मुनि जी म.सा. ने फरमाया कि हम यतनापूर्वक चलें व हमारी सभी क्रिया यतनामय ही होनी चाहिए। यतना को प्राकृत में ‘‘जयणा’’ कहा जाता है, जिससे जैन शब्द बना है। आगमों में कहा है कि साधु ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के आलम्बन से ही चले तथा अनावश्यक न चले। संसार में सही रास्ते पर चलने वाला शान्ति, संतोष, समाधान पाता है एवं सहिष्णु बनता है। श्रीसंघ अध्यक्ष इंदर सिंह मेहता ने बताया कि दर्शनार्थियों का आवागमन निरन्तर जारी है। आज प्रवचन सभा में चैन्नई, इरोड, ब्यावर के भक्तगण उपस्थित थे। मीडिया प्रभारी डॉ. हंसा हिंगड़ ने बताया कि प्रातःकालीन अहिरंत बोधि क्लास में आचार्य श्री जी ने फरमाया कि यदि आप मान-सम्मान पाना चाहते हैं तो अपना चरित्र, भावना, साधना एवं दृष्टिकोण भी सुन्दर बनायें। जीवन में कीचड़ और लीचड़ दोनों से बचने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि एक तन को तो दूसरा मन को खराब करता है।
जीवन में ज्ञान आ गया तो जीवन सुंदर, शालीन एवं विवेक से सुसज्जित हो जाएगा : आचार्य विजयराज
