(जयन्ती 12 अप्रैल पर विशेष आलेख) 
राजनीति के क्षैत्र में सुन्दर सिंह जी भण्डारी ऐसा व्यक्तित्व है, जिसने अपने निजी जीवन में कठोर अनुशासन, सरलता, सहिष्णुता, सहनशीलता व मितव्ययिता को संजोकर कार्यकर्ताओं के सामने एक आदर्श प्रस्तुत किया। उनकी कार्यशैली भले ही कठोर थी, लेकिन उनका व्यवहार स्नेहिल व पथ प्रदर्शक रहा। मैं संगठन के उन कार्यकर्ताओं में सम्मिलित हुॅ, जिन्हें भण्डारी जी के संगठन कुशलता, लोकसंग्रहवृति, वैचारिक और सैद्धान्तिक दृढता को प्रत्यक्षतः अनुभव करने का अवसर मिला।

उदयपुर में डाॅ. सुजान सिंह जी भण्डारी के घर में 12 अप्रेल 1921 माॅं फूल कुंवर जी के कोख से बालक सुन्दर सिंह का जन्म हुआ। उदयपुर व सिरोही में अध्ययन के बाद में अग्रिम अध्ययन के लिए कानपुर गये। पं. दीनदयाल जी उपाध्याय उनके सहपाठी मित्र बने। 1937 में वे और दीनदयाल जी कानपुर के नवाबगंज में लगने वाली शाखा के स्वयंसेवक बने। 1942 में एम.ए. एल एल बी की शिक्षा प्राप्त कर लौटे। उदयपुर में संघ की पहली शाखा उन्होनें पंचायती नोहरे में प्रारंभ की। भण्डारी जी ने उदयपुर में निरन्जननाथ जी आचार्य व हमीर लाल जी मुरडिया के साथ वकालात प्रारम्भ की, लेकिन यह कार्य उनके मनोकूल नहीं लगा। 1943 में उन्होनें शिक्षाभवन के प्रधानाध्यापक का पदभार ग्रहण किया, इस कारण व राजनीति में कठोर अनुशासन का व्रती होने कारण उन्हें स्नेह से माड्साब (मास्टरजी कहकर) पुकारते थे । वे प्रचारक जीवन का व्रत लेकर संघ के जोधपुर विभाग प्रचारक बने, 1950 में उन्हें जयपुर विभाग का काम भी दिया गया। भारतीय जनसंघ की स्थापना के साथ संघ ने जिन प्रचारकों को भेजा, उनमें भण्डारी जी एक थे। जनसंघ के राजस्थान प्रदेश महामंत्री, राष्ट्रीय महामंत्री, संगठन महामंत्री, जनता पार्टी के विधान समिति के अध्यक्ष, भाजपा के प्रथम कोषाध्यक्ष, फिर बरसों राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, तीन बार राज्यसभा सांसद् और बिहार व गुजरात के राज्यपाल पद की उनकी दीर्घ राजनीतिक यात्रा है। लेकिन उन्हें अपने एक पार्टी का अखिल भारतीय नेता, सांसद् या राज्यपाल होने का अहंकार लेशमात्र भी न छू सका, यह अपने व्यक्तित्व की अद्वितीय विशेषता थी।
मैं उनके राजनीतिक जीवन की में दो चुनाव पराजयों का प्रत्यक्षदर्शी हूॅ। लेकिन दोनों अवसर पर मैने उन्हें समभाव में देखा। पहले जब राज्यसभा में सांसद् बने तो उनमे भारी उल्लास नहीं था। और राजस्थान में भीतरघात से राज्यसभा चुनाव हार गये तो कोई निराशा नहीं थी। राज्यसभा चुनाव हारने के बाद बैठक में एक कार्यकर्ता ने कुछ विधायकों का नाम लेकर आरोप लगाया, उन्होनें आपको वोट नहीं दिया है। भण्डारी जी ने तुरन्त कहा बिना ठोस प्रमाण के हरेक पर आरोप लगाना संदेह करना उचित नहीं है। चर्चा वही शांत हो गई। राजनीति में ठकरसुहाती बातों के कारण कई विवाद खडे़ हो जाते है, लेकिन भण्डारी ने ऐसा नहीं होने दिया।

उदयपुर संसदीय क्षैत्र में सांसद् मोहनलाल जी सुखाड़िया के निधन के पश्चात रिक्त हुई सीट पर 1982 में उपचुनाव हुआ। 1980 के मध्यावधि चुनाव में भानुकुमार जी शास्त्री ने सुखाडिया जी के खिलाफ चुनाव लड़ा था। उपचुनाव में कुछ वरिष्ठ लोगों के आग्रह पर भण्डारीजी को चुनाव मैदान में उतारा गया। टिकिट पर अधिकार स्वभाविक रूप से शास्त्रीजी का था, संदेश यही गया कि शास्त्रीजी का टिकिट काटकर भण्डारीजी को दे दिया गया। भण्डारीजी नामाकंन भरने उदयपुर आये वे अपने पैतृक निवास पर नहीं गये, सीधे शास्त्री के शिवाजीनगर निवास पर गये और उनसे कहा कि मैं यही अपना आवास बनाकर चुनाव लडूगां। शास्त्रीजी ने सहर्ष स्वागत किया। उन्होनें पूरे चुनाव में अपना निवास वहीं रखा। शास्त्री के परिजन बताते है चुनाव प्रचार से देर रात आकर वे अपने कपडें स्वयं धोकर सुखाते थे। परिजनों के कई बार आग्रह पर भी वे नहीं माने। जिसका टिकट काटकर स्वयं को टिकट मिले, फिर वह प्रत्याशी टिकट कटने वाले नेता के घर जाकर रहने लगे, और वो नेता व उसका परिवार उसे सहर्ष मान ले, शास्त्री जी व भंडारी जी का यह उदाहरण स्वयं में अद्वितीय है। यह घटना वर्तमान राजनीतिक परिपेक्ष्य में एक पटकथा से कम नहीं है। वर्तमान राजनीतिक दौर में टिकिट के पैनल में शामिल दो नेताओं के सम्बन्ध सामान्य नहीं रहते।
मुझे राजनीति में दो प्रत्याशियों के लोकसभा चुनाव हारने के बाद उनके द्वारा सभा आयोजित कर मतदाताओं का आभार व्यक्त करने की जानकारी है। उनमें एक है दीनदयाल उपाध्याय व दूसरे सुन्दर सिंह भण्डारी। जोनपुर उ.प्र. में चुनाव हारने के बाद दीनदयाल उपाध्याय द्वारा मतदाताओं का आभार प्रदर्शन करने के लिये आयोजित सभा का वर्णन जैसा मैनें साहित्य में पढा, ठीक वैसा ही दृश्य 1982 के उपचुनाव परिणाम की घोषणा के बाद उदयपुर के मुखर्जी चौक में भण्डारी की सभा में दिखा, कांग्रेस के दीनबंधु वर्मा चुनाव जीते थे, भण्डारी हार गये थे। उन्होनें अपनी हार पर कहा कि मैं चुनाव जीतता तो अकेला ही दिल्ली जाता दीनबंधु जी नहीं जाते। वे चुनाव जीतकर जा रहे है, मै भी हारकर भी दिल्ली ही जा रहा हुॅ। पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी के नाते मेरा प्रवास देशभर में रहता है। दीनबंधु जी उदयपुर ही रहते है, वे आपकी अधिक सेवा कर सकेंगें। उन्हें जरूरत हुई तो दिल्ली मे मैं उनकी भी मदद को तैयार हूं। फिर भण्डारी ने पराजय व निराशा के माहौल में भी हास्य का पुट दिया। उन्होनें कहा मैं तो 1954 से दिल्ली में ही हू, जीतकर भी वहीं जाता और हारकर भी वहीं जा रहा हूं – ‘‘मैं तो सदा सुहागन हूॅ‘‘। भण्डारी के विनोद भाव को देखकर कार्यकर्ताओं ने नारे लगाये- ’अंधेरे में भी दो चिंगारी अटल बिहारी और भण्डारी’। पं. दीनदयाल उपाध्याय जोनपुर में व भण्डारी उदयपुर में पराजय के बाद आमसभा में भाषण मानों सात्विक कार्यकर्ता होने के गीता में वर्णित लक्षण ‘ सिद्ध सिद्धयों निर्विकार कर्ता सात्विक उच्यते‘ को साकार करने वाला था।
उदयपुर उनका पैतृक निवास होने से वे प्रायः प्रतिवर्ष उदयपुर आते रहते थे। वे अपने आने की सूचना पोस्टकार्ड लिखकर भेजते थे। कई बार डाक में विलम्ब होने से कोई स्टेशन पर नहीं जा पाता तो, वो स्वयं पैदल चलकर शिवाजी नगर संघ कार्यालय आ जाते और कई बार पैदल ही अपने सिंधी बाजार निवास पर चले जाते। जयपुर प्रवास में पार्टी कार्यालय और संघ कार्यालय के अलावा वे किसी नेता के निवास पर रूके तो वे है कैलाश जी मेघवाल।
डा. श्यामा प्रसाद जी मुखर्जी के आव्हान पर वे 1953 के कश्मीर आंदोलन में उदयपुर से गये थे। उनके साथ भानुकुमार जी शास्त्री व श्यामलाल जी कुमावत भी गये थे।
अपने पत्रोत्तर पोस्टकार्ड पर हाथ से लिखकर डाक डिब्बे में स्वयं डालना उनका स्वभाव था। राजभवन में रहकर भी अपने जूते स्वयं पाॅलिश करना, कपडे धोना जैसे काम स्वयं करने में वे संतोष अनुभव करते थे। दिल्ली में पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी के रूप में रहकर भी टीटीसी की बस में यात्रा करना, रेल के द्वितीय श्रेणी डिब्बे में यात्रा करने में कभी असहज नहीं लगते थे।
सन् 2005 में उनकी अस्वस्थता में वे कालकाजी, दिल्ली में पूर्णिमा जी सेठी के आवास पर स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे। तब वरिष्ठ नेता धर्मनारायण जी जोशी के साथ मैं भी उनकी कुशलक्षेम पूछने गया। गंभीर अस्वस्थता में भी वे उदयपुर के परिचितों का नाम लेकर सभी के बारें में जानकारी ले रहे थे। अस्वस्थता के मध्य भी अपने लोगो की चिन्ता उनकी सहृदयता का प्रतीक है।
संगठन में सत्य, सटीक व खरी राय व टिप्पणी के लिये भण्डारी के मुकाबले में कोई नहीं रहा। वे अटलजी, आडवाणी जी व शेखावत जी जैसे नेताओं को भी खरा कहने में कभी नहीं चूके, उन्हें नुकसान व उपेक्षा भी झेलनी पडी, लेकिन उन्होनें अपने सिद्धान्त व स्वभाव से कभी समझौता नहीं किया। राजनीति में रहकर भी राजनीति से निर्लिप्तता का भाव दीनदयाल उपाध्याय के बाद किसी में देखने को मिला तो वे है सुन्दर सिंह जी भण्डारी वे वस्तुतः राजनीति में शुचिता, समर्पण व वैचारिक दृढता के प्रतिमान थे। 22 जून 2005 को कालका जी दिल्ली में उनका निधन हो गया। पुण्यतिथि पर राजनीति के ऋषि को सादर शत शत नमन
डॉ.विजय प्रकाश विप्लवी
पूर्व सदस्य, भाजपा प्रदेश मीडिया प्रकोष्ठ
                        
 
     
                                 
                                 
                                 
                                 
                                