राजनारायण बनाम इंदिरा गांधी के फैसले ने बदली राजनीति की राह

आपातकाल भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय
आपातकाल के पचास वर्ष पूर्ण
25 जून 1975 का दिन भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का वह काला दिन माना जाता है, जिस दिन से इक्कीस माह के लिये विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में सत्तारूढ दल ने अपनी कुर्सी सुरक्षित रखने के लिये नागरिकों संवैधानिक मूल अधिकारों को निलम्बित कर दिया। इस घटना ने भारतीय राजनीति को नये मोड़ पा ला दिया।
12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहनलाल सिन्हा ने राजनारायण बनाम इंदिरा गांधी मामले में रायबरेली से इंदिरा गांधी का सांसद् निर्चाचन रद्द करके छः वर्ष तक उनके निर्वाचन में प्रत्याशी बनने पर भी रोक लगा दी। 1971 में रायबरेली में हुए चुनाव में इंदिरा गांधी के निर्वाचन को उनके प्रतिद्वंदी राजनारायण ने न्यायालय में चुनौती दी थी। राजनारायण ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर सांसद् निर्वाचन में सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग करने व चुनावी कदाचार का आरोप लगाया था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस निर्णय से सत्ता के गलियारे में हडकम्प मच गया। श्रीमती गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की। न्यायाधीश वीआर कृष्णा अय्यर नें उच्च न्यायालय के निर्णय को बरकरार रखते हुए इंदिरा गांधी को सांसद् के रूप में मिल रही सभी सुविधाओं से वंचित का दिया, लेकिन उनका प्रधानमंत्री पद सुरक्षित रहा। विपक्षी नेताओं ने नैतिकता के आधार पर श्रीमती गांधी से प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र की मांग की। समग्र क्रांति के नायक जयप्रकाश नारायण ने अगले दिन दिल्ली के रामलीला मैदान में विशाल रैली आहूत की। विपक्ष के साथ कांग्रेस के युवा तुर्क कहे जाने वाले नेता चन्द्रशेखर व रामधन जैसे नेताओं ने भी इंदिरा गांधी से त्यागपत्र मांग लिया। देश में राजनीतिक उठापटक, आंदोलन व अंसंतोष के उभरते नारों के मध्य सरकार मुसीबत में फंस गई। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति को देश में आपातकाल लागू करने की सिफारिश भेज दी। जिस पर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ने आपातकाल के मसौदे पर अपनी मुहर लगा दी। देश ही नहीं दुनियां भर के लोग भोचक्के रह गये, क्यों की भारतीय संविधान जिन परिस्थितियों के कारण आपातकाल की अनुमति देता है, वैसे कोई कारण या परिस्थितियां भारत में उस समय नहीं थी।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत देश में आपातकाल घोषित करने का प्रावधान किया गया है। इसमें कहा गया है कि बाहरी आक्रमण होने अथवा आंतरिक अशांति की स्थिति में देश में आपातकाल घोषित किया जा सकता है। प्रधानमंत्री के नेतृत्व में मंत्री परिषद् के लिखित आग्रह पर राष्ट्रपति आपातकाल की घोषणा कर सकते है। यह प्रस्ताव संसद् के दोनों सदनों में एक माह में पारित न होने की स्थिति में यह प्रस्ताव स्वतः खारिज माना जाता है। लेकिन यह आपातकाल 21 माह तक जारी रहा, प्रत्येक छः माह बाद राष्ट्रपति इसकी अवधि बढाते रहे।
25 जून 1975 की मध्य रात्रि को आपातकाल की घोषणा के साथ ही देश के विपक्षी दलों के प्रमुख नेताओं जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चैधरी चरण सिंह,अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जाॅर्ज फर्नाडींस, पीलू मोदी, मधु लिमये, अशोक मेहता, मधु दण्डवते, प्रकाश सिंह बादल, राजनारायण, भैरोसिंह जी शेखावत गिरफ्तार कर लिये गये। 30 जून 1975 को नागपुर रेलवे स्टेशन पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक बालासाहब देवरस का गिरफ्तार कर लिया गया।
4 जुलाई 1975 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व आनंद मार्ग सहित कुछ संगठनों पर प्रतिबंध लगाया गया । विपक्षी नेताओं, संघ के स्वयंसेवकों व आपातकाल का विरोध करने वालों की गिरफ्तारियां होने लगी।  प्रमुख समाजवादी श्रमिक नेता व सांसद् जाॅर्ज फर्नाडींस को तो हथकड़ियों में जकड़ा गया।
ये गिरफ्तारियां आंतरिक सुरक्षा अधिनियम (मीसा) 1971 व भारत रक्षा नियम (डी आई आर) 1915 के तहत हुई। चारों ओर धरपकड़ व अत्याचार का दौर प्रारम्भ हो गया। लोकतंत्र की मांग करने वालों को अपराधी माना गया। प्रेस पर सेंसरशिप लागू की गयी। प्रत्येक अखबार सरकारी अधिकारी की अनुमति से छपने लगा। अभिव्यक्ति के साथ जीवन जीने का अधिकार भी निलम्बित होने लगा। सरकार की गलत नीति का विरोध देश का विरोध करार दिया गया। देश में भय व आतंक का वातावरण व्याप्त हो गया। पता नहीं कब कौन सलाखों के पीछे डाल दिया जाये। सम्पूर्ण देश मानों फिर परतंत्र हो गया। किसी की कोई सुनवाई नहीं, विरोध करने का परिणाम केवल जेल।
समग्र क्रांति के नेताओं ने नानाजी देशमुख के संयोजकत्व में 14 नवम्बर 1975 से आपातकाल हटाने, मौलिक अधिकारों ेकी बहाली कराने, दमन बंद करने व समाचार पत्रों से सेंसरशिप हटाने की मांगों को लेकर सत्याग्रह करने का निर्णय लिया। सम्पूर्ण देश मं एक साथ सत्याग्रह प्रारम्भ हुआ। सत्याग्रही सड़कों पर नारे लगाते, पर्चे बांटते निकलने लगे। पुलिस, प्रशासन व सरकार हैरान रह गये। कहीं कलक्ट्री, सरकारी भवनों व समारोहों के मध्य, तो कहीं चैराहों व बाजारों में नारेबाजी कर, भाषण देकर व पुतले जलाकर सत्याग्रह किया और अपनी गिरफ्तारियां दी। 26 जनवरी 1976 जारी रहे सत्याग्रह में लाखों लोगों ने गिरफ्तारी दी। इनमें अधिकांश संघ व उसके अनुसांगिक संगठनों के कार्यकर्ता थे। आपातकाल में संघ सरकार के आंखों की किरकिरी बन गया, संघ के स्वयंसेवकों को विविध प्रकारों से प्रताडित किया गया। संघ व भारतीय जनसंघ के कार्यालयों का सामान खुुर्दबुर्द या नष्ट कर दिया गया। संघ के कार्यकर्ताओं के निवास, कार्यालय व व्यवसाय तक को नुकसान पहुंचाया गया, उनके परिजनों को तक प्रताडित किया गया। यदि देश भर की इन सभी घटनाओं को लिखा जाय तो कई संस्करणों में ग्रंथों का प्रकाशन करना पडेगा।
आपातकाल में लगभग पौने दो लाख सत्याग्रहियों ने स्वयं अपनी गिरफ्तारी दी। देशभर में मीसा व डीआईआर कानून में 44965 लोग पकड़े गये। इनमें से अधिकांश संघ से सम्बन्धित थे। पुलिस थानों में बिना गिरफ्तारी पुलिस यातना व प्रताडने के तो असंख्य मामले है, जिनकी संख्या संभव नहीं, उन स्वयंसेवकों व कार्यकर्ताओं से वर्णन सुनकर रोंगटे खडे हो जाते है। 26 जनवरी 1976 को सत्याग्रह बंद होने के पश्चात देश में कहीं भी विरोध दिखाई नहीे दे रहा था। संघ की व्यवस्था के अनुसार कुछ वरिष्ठ भूमिगत रहकर सत्याग्रह को गति देते रहे, तो कुछ ’चिंगारी‘ जैसे बुलेटिन जनजागरण पत्रक के मुद्रण व वितरण की व्यवस्था संचालित करते रहे। इनमें से कई प्रमुख पदाधिकारियों को अंत तक गिरफ्तार नहीं किया जा सका। आपातकाल का संघर्ष हर लोकतंत्र सैनानी के संघर्ष की वो कथा है, जिनके हौंसलों ने सरकार को झुकने के लिये मजबूर कर दिया था। अकेले राजस्थान में विभिन्न स्थानों से 32 समाचार बुलेटिन निकाले गये, जिनकी प्रसार संख्या हजारों में थी। प्रेस सेंसरशिप के मध्य मुद्रित व साईक्लोस्टाइल (चक्रांकन) किये हुए पत्रकों का वितरण पुलिस व सरकार के लिये नित नया सिरदर्द साबित हो रहा था।
सर्वोदयी नेता विनोबा भावे प्रारम्भ में आपातकाल के समर्थन में रहे, लेकिन 4 अक्टूबर 1975 को पवनार आश्रम में उनके शिष्य प्रभाकर द्वारा आपातकाल के विरोध में आत्मदाह करने व तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहब देवरस द्वारा विनोबा भावे से पत्र व्यवहार के बाद वे भी आपातकाल के विरोध में खड़े हो गये और 10 सितम्बर 1975 को वे भूख हडताल पर भी बैठै। आपातकाल में श्रमिक नेता जाॅर्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में रेलवे की देशव्यापी हडताल हुई। कांग्रेस सरकार ने जाॅर्ज सहित 24 लोगों पर बडौदा डायनामाईट मामले में अपराधिक मामला दर्ज किया, जाॅर्ज को न्यायालय ने बरी कर दिया। जाॅर्ज को जेल में यातनाएं दी गई, उन्हें हथकडियों व जंजीरों से जकड़ा गया।
उदयपुर में विद्यालयी छात्र भूपाल सिंह बाबेल को पुलिस ने पकडकर सेण्ट्रल जेल में भेज दिया, बाबेल ने दसवीं बोर्ड की परीक्षा जेल से परीक्षा केन्द्र पर आकर दी। पुलिस हथकडी लगाकर परीक्षा केन्द्र पर लाती थी। छोटी कक्षा के विद्यार्थी उन्हें अपराधी के रूप में उपेक्षापूर्ण दृष्टि से देखते थे। वहीं उदयपुर में मेडिकल में तृतीय वर्ष के छात्र भरत मथुरिया ने 15 अगस्त के राजकीय समारोह में सत्याग्रह किया। पुलिस पीटते हुए थाने लाई, वहां भी मारापीटा, लेकिन पुलिस कोई राज नहीं उगलवा सकी।
भारतीय जनसंघ के प्रदेशाध्यक्ष व तत्कालीन विधायक भानुकुमार शास्त्री मीसा में व उनके तीन अनुज नारायण लाल, पीताम्बर व पदम कुमार शर्मा डीआईआर में जेल में थे। अन्य परिवारजनों को पुलिस जब चाहती थाने बुलाकर मारपीट व प्रताडना देती। शास्त्री के पुत्र हृषिकेश उस समय प्राथमिक कक्षाओं में पढते थे। पुलिस दो बार विद्या निकेतन स्कूल से उठाकर सूरजपोल थाने ले आई। हृषिकेश बताते है उन्हें जब दूसरी बार थाने लाया तब योग से तत्कालीन जिला कलक्टर थाने आ गये, उन्होंने पूछा ये बच्चा कौन है? क्यों बैठा है? फिर जिला कलक्टर ने पुलिस अधिकारियों को फटकारा और उन्हें घर भिजवाया। आपातकाल के मध्य शास्त्री की छोटी बहिन सरिता का विवाह था, पिताजी दिवगंत हो चुके थे। अग्रज के नाते कन्यादान शास्त्री को करना था, वे दो दिन के लिये पैरोल पर आये और कन्यादान करके वापस जेल चले गये। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने भानुजी के घर में घुसकर तलाशी के नाम पर परिजनों से भारी अभद्रता की। 1977 में जनता पार्टी का शासन आते ही वो पुलिस अधिकारी माफी मांगने आ गया। उदारमना शास्त्री ने उसे क्षमा भी कर दिया।
पाली में सत्याग्रहियों का बिजली के शाॅट तक लगाये गये। पाली कोतवाली में दी गई यातनाओं में एक कार्यकर्ता ज्ञानदास वैष्णव की श्रवणशक्ति समाप्त हो गई।
सेनावासा (बांसवाड़ा) निवासी नवनीतलाल निनामा (जो बाद में विधायक भी बने) को पुलिस ने पकडा, थाने में पिटाई की। नवनीत भाई बताते है कि पुलिसवालों ने उनसे इंदिरा गांधी जिंदाबाद बोलने को कहा। जब उन्होंने मना कर दिया तोएक पुलिसवाला छाती पर बैठ गया, दूसरे ने पैर पर लाठियां मारी, हर प्रहार पर नवनीत भाई ने भारतमाता की जय और अटल बिहारी जिंदाबाद का नारा लगाया। आपातकाल की मार से नवनीत भाई को आज भी चलने में परेशानी है। ये घटनाएं तो केवल उदाहरण के लिये उल्लेख की है। अधिकांश स्वयंसेवक व सत्याग्रहियों तथा उनके परिजनों को परेशान व प्रताडित करने में शासन ने कोई कसर नहीं छोडी।
आपातकाल में इंदिरा गांधी के 21 सूत्रीय व संजय गांधी के पांच सूत्रीय कार्यक्रम के बहाने पूरा प्रशासन गांधी परिवार की मिजाजपूर्सी मे लगा था। इन कार्यक्रमों नसबंदी अभियान के लक्ष्यों को पूरा करने के लिये कितनी ज्यादतियां हुई है। इनके किस्सों की गाथा भी बहुत विस्तृत है। आपातकाल की ज्यादतियों तथा सरकार व प्रशासन की निरंकुशता से जनता त्रस्त हो चुकी थी।
अंततः 21 मार्च 1977 को आपातकाल समाप्त हुआ। देश में आम चुनाव की घोषणा के साथ लोकतंत्र बहाली का मार्ग प्रशस्त हुआ। आपातकाल में जेल में साथ रहे विपक्षी दलों के नेताओं द्वारा मिलकर जनता पार्टी बनाई को लोकसभा व देश के अधिकांश प्रांतों में बहुमत मिला। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी रायबरेली से, उनके पुत्र संजय गांधी अमेठी से व देश में कांग्रेस के कई दिग्गज नेता भी चुनाव हार गये। यह चुनाव भारतीय लोकतंत्र व संविधान में जनता की आस्था का प्रकटीकरण था। इस चुनाव में भारत में केन्द्र में पहली बार गैर कांग्रसी सरकार का गठन हुआ। 1977 के आम चुनाव का परिणाम इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि भारत की जनता प्रजातांत्रिक मूल्यों को अक्षुण्ण रखना चाहती है।
By Udaipurviews

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