उदयपुर, 26 जुलाई। श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक श्रीसंघ के तत्वावधान में मालदास स्ट्रीट स्थित आराधना भवन में चातुर्मास कर रहे पंन्यास प्रवर निरागरत्न जी म.सा. ने शनिवार को धर्मसभा में कहा कि जिनशासन कैसा है ? सुख को देने वाला और दुःख का नाश करने वाला और सभी जीवों का हित करने वाला। कोई भी अच्छी या बुरी चीज को अगले भव में प्राप्त करने के लिए अनुबंध होना जरूरी है, नेम और राजुल का ऋणानुबंध था, कमठ और पार्श्व प्रभु का वेरानुबंध था, आपके जीवन में अगर तीन चीजें होगी तो आपको पुनः अगले भव में जिनशासन मिलेगा, पहली सुकृत परम्परा-आप सामायिक, पूजादि जो भी धर्म क्रते हो उससे आप धर्मी हो ऐसा सर्टिफिकेट नहीं मिलेगा। आपका धर्म में मन कैसा है इसलिए धर्म में मन लगाना है, दूसरा आचार पालन-व्रत में स्थिर रहना, व्रत यानि पाप से अटकना, आपको धर्म के लिए विभिन्न क्षेत्र मिलेंगे जबकि पाप से हरेक क्षेत्र में अटकोगे और तीसरा गुणों का पक्षपात, सभी के गुणों को एक समान दृष्टि से देखो और गुणवान व्यक्तियों को आगे बढ़ाओ।
ज्ञान ही हमारे स्वभाव को भला बनाता है जिससे मनुष्य में कई गुण प्रकट होते हैं: आचार्य विजयराज
उदयपुर, 27 जुलाई। केशवनगर स्थित अरिहंत वाटिका में आत्मोदय वर्षावास में शनिवार को धर्मसभा को सम्बोधित करते हुए हुक्मगच्छाधिपति आचार्य श्री विजयराज जी म.सा. ने कहा कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप मोक्ष गति के साधन हैं, इन साधनों की पूर्णता ही मोक्ष है। इस मार्ग पर चलने वाले सद्गति को प्राप्त करते हैं। ज्ञान का प्रारम्भ वैराग्य से होता है, वैराग्य भाव ही ज्ञान को स्थिर एवं परिपक्व बनाता है। ज्ञान व क्रिया दोनों में समन्वय जरूरी है। बिना क्रिया के ज्ञान अंधा और बिना ज्ञान के क्रिया पंगु है। सभी महापुरूषों के जीवन में सम्यक् ज्ञान का प्रकाश होता है, यह ज्ञान हमारी समझ को विकसित करता है। ज्ञान ही हमारे स्वभाव को भला बनाता है जिसके परिणाम स्वरूप जीवन में प्रभु भक्ति, ईमानदारी, प्रज्ञा का जागरण, उदारता, लज्जा एवं मधुर संभाषण आदि गुण प्रकट होते हैं। प्राणियों को ज्ञान गंध से होता है, पंडितों को ज्ञान शास्त्रों से होता है, राजा को ज्ञान गुप्तचरों से होता है और साधारण जनों को ज्ञान आँखों से होता है। अंततः ज्ञान की आवश्यकता सभी को रहती है। उपाध्याय श्री जितेश मुनि जी म.सा. ने कहा कि समान कुल शील वाले अन्य गौत्रीय में विवाह करे इस पर प्रकाश डालते हुए कहा कि देह/पर्याय वासना जनित ही है इसलिए समाजशास्त्रियों ने ‘विवाह’ को मान्य किया ताकि वासना की आग एक केन्द्र तक सीमित रहे और समाज में सदाचार बना रहे। विवाह संस्कार, योग्यता, रूप-रंग स्तर आदि में समानता होने पर होने चाहिए। विवाह सूत्र में बंधने वालांे में सहिष्णुता, ईमानदारी एवं सही निर्णय लेने की क्षमता होनी चाहिए। देखने में आता है कि संयुक्त परिवारों में पले युवा-युवतियां बेहतर तालमेल बिठा पाते हैं।