उदयपुर, 24 अक्टूबर। केशवनगर स्थित अरिहंत वाटिका में आत्मोदय वर्षावास में गुरूवार को हुक्मगच्छाधिपति आचार्य श्री विजयराज जी म.सा. ने कहा कि बुद्धि दो प्रकार की होती है-घृत बुद्धि, तेल बुद्धि। घृत को जिस सतह जगह पर डाला जाता है वह वहीं ठहर जाती है, जबकि तेल की एक बूंद समुद्र की, पानी की सतह पर डाली जाती है तो वह फैल जाती है। हम अपनी बुद्धि को तेल बुद्धि बनाएं। उत्तराध्ययन सूत्र के 28वें अध्ययन की 22वीं गाथा में प्रभु ने फरमाया है कि जैसे जल में तेल की एक बूंद फैल जाती है वैसे ही जो सम्यक्त्व एक पद तत्व बोध से अनेक पदों में फैलता है, वह बीज रूचि है। जैसे विशाल समुद्र में तेल की एक बूंद डूबती नहीं, अपितु फैलती है वैसे ही एक सूत्र या अनेक सूत्रों को सुनते-सुनते बीज रूचि फैलती चली जाती है। एक छोटे से राइ जितने बरगद के बीज में विशाल वटवृक्ष छिपा रहता है वैसे ही बीज रूचि का भविष्य सिद्धत्व, बुद्धत्व एवं मोक्षत्व है। एक छोटे से बीज को यदि उर्वरा भूमि, उर्वरा खाद, समझदार किसान एवं जलादि का संयोग मिलता है तो वह कई गुना उन्नत बीज हमें लौटाता है। वैसे ही जिनमें बीज रूचि आ जाती है वे एक न एक दिन मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर हो जाते हैं। उपाध्याय श्री जितेश मुनि जी म.सा. ने कहा कि आग्रह सामान्य हो तब तक ठीक है। यदि वह दुष्ट आग्रह में ले जावे तो वह दुराग्रह है। किसी चीज में दिल लगने पर यह मुझे मिलनी ही चाहिए, यह भाव हठाग्रह है। मुझे जो ठीक लगा, वह आपको भी ठीक लगना चाहिए, यह कदाग्रह है। पुरानी बातों को पकड़ कर बैठे रहना या पहले से ही कोई राय बना लेना पूर्वाग्रह है। सुखी रहना है तो जिनेश्वर देव ने जो कहा, उसे मानने का आग्रह स्वयं से करें। हम दुराग्रह, विग्रह की प्रवृत्तियां छोड़ कर भगवान के भक्त बनें।
जिनमें बीज रूचि आ जाती है वे एक न एक दिन मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर हो जाते है : आचार्य विजयराज
