श्रावण में शिव तत्व की व्यापकता और दैनिक जीवन में उसकी व्याप्ति पर व्याख्यान
उदयपुर 30 जुलाई। अखिल भारतीय नववर्ष समारोह समिति की विशेष व्याख्यानमाला के अंतर्गत आज आलोक संस्थान सेक्टर 11 में आयोजित एक वैदिक व्याख्यान में प्रसिद्ध विचारक एवं शिक्षाविद् डॉ. प्रदीप कुमावत ने शास्त्रों में वर्णित ब्रह्मांड की उत्पत्ति को लेकर गहराई से प्रकाश डाला।
डॉ. कुमावत ने कहा कि परम ब्रह्म की इच्छा से सृष्टि का आरंभ हुआ, और सबसे पहली अनुभूति कम्पन थी जिससे ध्वनि का प्रकट होना संभव हुआ। यह ध्वनि ही “ओंकार” के रूप में प्रकट हुई, जो न केवल सृष्टि का प्रारंभिक स्वर है, बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्मांडीय ऊर्जा का प्रतीक भी है।
उन्होंने स्पष्ट किया कि सृष्टि के प्रारंभ में सत्त्, रज और तम इन तीन गुणों की रचना हुई। इन्हीं गुणों के आधार पर सृजन, संरक्षण और संहार की प्रक्रियाएँ स्थापित हुईं। इसके पश्चात पंचतत्वों आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी का निर्माण हुआ, जिससे प्रकृति की संरचना हुई।
डॉ. कुमावत ने कहा कि जल से “नार” की उत्पत्ति हुई और वहीं से “नारायण” का प्राकट्य हुआ। इसके बाद विष्णु की नाभि से उत्पन्न कमल में ब्रह्मा प्रकट हुए, जिन्होंने सृष्टि की रचना का बीड़ा उठाया।
उन्होंने बताया कि जब ब्रह्मा ने षष्ठी (सृष्टि की विविध योनि और प्रजातियों) की रचना करनी चाही तो सनक, सनन्दन, सनत, नारद, शरद कुमार आदि ने सहयोग नहीं किया। तब भगवान शंकर ने अर्धनारीश्वर रूप में स्वयं को प्रस्तुत कर षष्ठी की रचना में सहयोग दिया।
विशेष रूप से डॉ. कुमावत ने मधु और कैटभ नामक दो दैत्यरूपी जीवों के संहार के बाद उनकी मेद (चर्बी) से बनी धरती को “मेधिनी” कहे जाने का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि मेवाड़ क्षेत्र को भी “मेध-पाठ” के स्थल के रूप में जाना जाता है, क्योंकि पौराणिक मान्यता के अनुसार मधु और कैटभ के अवशेष यहीं गिरे थे।
कार्यक्रम में वैदिक श्रोताओं, अध्यापकों और शोधार्थियों ने इस दार्शनिक और वैज्ञानिक संगम को बड़े मनोयोग से सुना। अंत में समिति की ओर से डॉ. कुमावत का अभिनंदन करते हुए उनके शोधपरक वक्तव्य को “भारतीय ज्ञान परंपरा का गौरवशाली उदाहरण” बताया गया।
इस अवसर पर शशांक टांक, निश्चय कुमावत, प्रतीक कुमावत, वीरेंद्र पालीवाल, नारायण चौबीसा सहित गण मान्य उपस्थित थे।